खेल
दो दशक पहले वाली ऑस्ट्रेलियाई टीम की तरह अब खेल रही ही टीम इंडिया
90 के दशक के आखिरी कुछ साल और उसके बाद अगले दस साल तक के अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट को याद कीजिए. 1996, 1999, 2003 और 2007 इन चार मौकों पर ऑस्ट्रेलिया की टीम विश्व कप के फाइनल में पहुंची थी. 1996 को छोड़ दें तो 1999, 2003, 2007 में लगातार तीन बार कंगारुओं ने विश्व कप पर कब्जा किया. ये वो दौर था जब ऑस्ट्रेलिया की टीम में स्टीव वॉ, मार्क वॉ, एडम गिलक्रिस्ट, रिकी पॉन्टिंग, मैथ्यू हेडन, शेन वॉर्न, ग्लेन मैग्रा, ब्रेट ली जैसे खिलाड़ी खेल रहे थे. 1999 में ऑस्ट्रेलिया ने पाकिस्तान को 8 विकेट से हराकर विश्व कप जीता था. 2003 में ऑस्ट्रेलिया ने भारत को 125 रनों से हराकर विश्व कप जीता था. 2007 में ऑस्ट्रेलिया ने श्रीलंका 53 रनों हराकर विश्व कप जीता था.
हार के अंतर पर गौर कीजिए. आपको समझ आएगा कि बड़े मैचों में कंगारुओं ने किस तरह एकतरफा जीत हासिल की थी. ये वो दौर था जब मैदान में ऑस्ट्रेलिया की टीम के उतरने के साथ ही आधी जीत पक्की मानी जाती थी. वनडे क्रिकेट से इतर टेस्ट क्रिकेट में भी उसका राज था. दुनिया की नंबर एक टीम के ताज के साथ ऑस्ट्रेलियाई टीम अपने घर में विरोधियों को धोती थी और विरोधियों के घर में भी जाकर उन्हें हराकर आती थी. उनके इस दबदबे को इस वाक्य के साथ समेटा जा सकता है कि करीब डेढ़ दशक तक कंगारूओं का क्रिकेट पर दबदबा था. पिछले करीब एक दशक में वो दबदबा बड़ी तेजी से कमजोर हुआ. दबदबे के कमजोर होने वाले वक्त में ही एक दूसरी बड़ी टीम का आगाज हुआ और वो टीम है- टीम इंडिया.
बिल्कुल कंगारुओं की तरह खेल रही है टीम इंडिया
कंगारुओं की टीम की सबसे बड़ी खासियत थी कि वो मैदान में लड़ते थे. हर हाल में जीत हासिल करने के लिए उतरते थे. जब तक उनका आखिरी बल्लेबाज क्रीज पर है या गेंदबाज आखिरी ओवर फेंक रहा है विरोधी टीम की जीत के पक्ष में राय रखने वाले लोग कम ही होते थे. अब कुछ वैसी ही सोच के साथ भारतीय टीम मैदान में उतरती है. भारतीय क्रिकेट में ‘कलेक्टिव फेल्योर’ यानी सामूहिक नाकामी अब नहीं दिखती. टॉप ऑर्डर और मिडिल ऑर्डर नाकाम हो जाए लोअर मिडिल ऑर्डर और लोअर ऑर्डर के बल्लेबाज रन बनाते हैं. तेज गेंदबाज ना चल रहे हों तो स्पिनर्स अपना कमाल दिखाते हैं. स्पिनर्स ना चल रहे हों तो तेज गेंदबाज मोर्चा संभालते हैं.
भारतीय टीम को जीत के लिए अब मनमाफिक पिच की जरूरत नहीं है. हालिया श्रीलंका दौरे को याद कीजिए. दूसरे और तीसरे वनडे में भारतीय बल्लेबाजी लड़खड़ाई तो धोनी ने संभाल लिया. ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ पहले मैच में लड़खड़ाए तो धोनी के साथ हार्दिक पांड्या ने संभाल लिया. कोलकाता में रोहित जल्दी आउट हुए तो विराट ने संभाल लिया. ढाई सौ रनों का लक्ष्य था तो भुवनेश्वर कुमार और कुलदीप यादव ने शानदार गेंदबाजी कर दी. कोलकाता की पिच जिस तरह का बर्ताव कर रही थी उसमें जीत हासिल करना ये दिखाता है अब टीम इंडिया जीत के लिए पिच की मोहताज नहीं है. अब टीम को हर मुश्किल हालत से निकलना आता है.
2004 के पाकिस्तान दौरे से हुई थी शुरूआत
यूं तो पिछले डेढ़ दशक में भारत के खाते में 2007 विश्व कप के अलावा ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में टेस्ट सीरीज जैसी कुछ शर्मनाक हारें शामिल है लेकिन समग्र तौर पर पिछले डेढ़ दशक को याद कीजिए. ऑस्ट्रेलिया के दौरे से लौटने के बाद भारतीय टीम बिल्कुल अलग ही दिखने लगी. 2004 में भारत ने सौरव गांगुली की कप्तानी में पाकिस्तान में टेस्ट और वनडे सीरीज जीती. इसके बाद से पाकिस्तान की टीम का जो खौफ था वो खत्म हो गया. यही वो दौर था जब भारत पाकिस्तान की बजाए भारत ऑस्ट्रेलिया की टक्कर देखने में ज्यादा मजा आना शुरू हुआ था. भारतीय खिलाड़ियों ने कंगारुओं को उन्हीं के अंदाज में जवाब देना शुरू किया था.
इसके बाद द्रविड़ की कप्तानी में साउथ अफ्रीका, कुंबले की कप्तानी में ऑस्ट्रेलिया और धोनी की कप्तानी में मिली जीतों ने भारतीय टीम को एक अलग पहचान दी है. भारत ने टी-20 विश्व कप जीता. 2011 का विश्व कप जीता. टेस्ट क्रिकेट में नंबर-एक टीम बनी. इन सारी कामयाबियों में भारतीय खिलाड़ियों का एक अलग ही आत्मविश्वास दिखाई दिया. एक अलग ही ‘कैरेक्टर’ दिखाई दिया.
मौजूदा दौर में टीम की कमान विराट कोहली संभाल रहे हैं. वो भारतीय क्रिकेट को लेकर एक अलग ही सोच रखते हैं. उन्होंने खिलाड़ियों में एक अलग आत्मविश्वास भरा है. उनके पास नई सोच है. यही वजह है कि आज भारतीय क्रिकेट कामयाबी के एक अलग रास्ते पर जाता दिखाई दे रहा है.
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